आज पूरी दुनिया पर एलोपैथी चिकित्सा पद्धति का राज है। खास तौर से सर्जरी के मामले में इसने काफी तरक्की की है, लेकिन हकीकत यह है कि यूनानी चिकित्सा पद्धति में आठवीं सदी में ही सर्जरी होने लगी थी। उस वक्त अबुल कासिम जोहराबी काफी प्रसिद्ध सर्जन थे। उन्होंने सर्जरी के उपकरण भी बनाए थे। फिर आखिर यह पद्धति पिछड़ क्यों गई? प्रो. कासमी कहते हैं कि यूनानी पद्धति को प्रोत्साहन नहीं दिया गया और खुद इसके हकीमों ने भी इसके ज्ञान को बचाकर नहीं रखा।
हकीम बुकरात की देन है यूनानी
सातवीं-आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व से यूनानी चिकित्सा पद्धति का पता चलता है। हकीम बुकरात (जिन्हें अंग्रेजी में हिप्पोक्रेट कहा गया) को इसका जन्मदाता माना जाता है। खलीफा हारून रशीद और मामून रशीद के समय में यूनान से बुकरात की किताबों को मंगाकर उनका अरबी में अनुवाद कराया गया। बाद में अरब से यह दूसरे देशों में पहुंची। उन्हीं दिनों भारत से वैद्यों को बुलाकर उनकी आयुर्वेद की प्रसिद्ध किताब ‘चरक’ और ‘सुश्रत’ का अरबी में अनुवाद कराया गया। यह किताब अरबी में ‘फिरदौसुल-हिकमत’ के नाम से प्रसिद्ध है। आठवीं और नवीं शताब्दी ईसा पूर्व बगदाद और मिश्र में पूरी दुनिया से छात्र यूनानी चिकित्सा के तरीके सीखने के लिए आते थे।
प्रो. कासमी के मुताबिक हकीम इब्ने सीना, जकरिया राजी, अबुल कासिम जोहराबी, अब्दुल लतीफ बगदादी, इब्ने रुख्द की किताबों का अंग्रेजी-लेटिन और जर्मन भाषाओं में अनुवाद करके यूनानी इलाज को सीखा गया। इसी को एलोपैथी नाम दिया गया। उन्होंने बताया कि लेनिन की पुण्य तिथि पर प्रसिद्ध इतिहासकार एडवर्ड डी ब्राउन ने अरबी तिब्ब के बारे में कहा था कि अरबी तिब्ब (इलाज) असल में यूनानी तिब्ब ही है जो कि कब्र में दफन हो चुकी थी। उसे अरबों ने कब्र से निकालकर जिंदा किया। पाला-पोसा, जवान किया और अंत में उसका विवाह अंग्रेजों से कर दिया। जो आज एलोपैथी के नाम से फलफूल रही है।
अंग्रेज लाए थे यूनानी-आयुर्वेद के खिलाफ अध्यादेश
भारत में यूनानी चिकित्सा पद्धति आक्रमणकारियों और व्यापारियों के जरिये पहुंची। जड़ी-बूटियां सुलभ होने और इलाज असरदार होने कीा वजह से यूनानी यहां खूब फली-फूली। प्रो. कासमी ने बताया कि मुगल काल में यूनानी चिकित्सा पद्धति उरूज पर थी। अंग्रेजी शासन आने के बाद उन्होंने एलोपैथी को ज्यादा बढ़ावा दिया। कुछ वर्षों बाद अंग्रेजी सरकार ने यूनानी और आयुर्वेद को खत्म करने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया। देश के तमाम वैद्यों और हकीमों ने इसका पुरजोर विरोध किया। उन्होंने अपना एक संगठन बनाया, जिसका नाम रखा आयुर्वेद एवं यूनानी तिब्बी कान्फ्रेंस। संगठन के सचिव हकीम अजमल खां थे। संगठन ने अध्यादेश के खिलाफ देश भर में विरोध किया।
जबरदस्त मुखालफत के बाद अंग्रेजों ने अध्यादेश वापस ले लिया। इसके बाद हकीमों और वैद्यों को समझ में आ गया कि इन दोनों ही चिकित्सा पद्धतियों को बचाए रखने के लिए एलोपैथी की तरह ही इसकी भी पढ़ाई कराई जानी चाहिए। वैद्यों और हकीमों ने यूनानी और आयुर्वेद कॉलेज खोले। हकीम अजमल खां ने दिल्ली में आयुर्वेद एवं यूनानी तिब्बी कॉलेज खोला। इसके बाद बनारस में आयुर्वेद कॉलेज खुला।
हकीम अजमल ने नब्ज देखकर बता दी घोड़े से गिरने की बात
अजमल खां प्रसिद्ध हकीम थे। एक बार जब वह बीमार पड़े तो वह आबोहवा बदलने के लिए स्विटजरलैंड गए। वहां से लौटते हुए कुछ दिनों के लिए लंदन में भी रुके। वहां उनके एक दोस्त डॉ. मुख्तार अंसारी ने हकीम साहब को कई बड़े डॉक्टरों से मिलवाया और उनकी तारीफ करते हुए कहा कि यह नब्ज देखकर बीमारी बता देते हैं। तभी एक महिला को आपरेशन के लिए ले जाया जा रहा था। हकीम अजमल को बताया गया कि उसकी आंतों में जख्म है। डॉक्टरों के अनुरोध पर उन्होंने महिला की नब्ज देखी। उन्होंने बताया कि उसकी आंतों में कोई जख्म नहीं है बल्कि दूसरी परेशानी है। डॉक्टरों के कहने पर उन्होंने उसे दवा दे दी। एक हफ्ते के बाद वह महिला भली-चंगी अपने पैरों पर चलकर पहुंची। उसे देखकर डॉक्टर आश्चर्य में पड़ गए। डॉक्टरों ने पूछा कि इस महिला को आखिर तकलीफ क्या थी? हकीम अजमल ने बताया कि उसकी आंत उलझ गई थी, जो दवाओं से सीधी हो गई। हकीम साहब ने महिला से पूछा कि क्या वह घुड़सवारी करती हैं, तो उसने हां में अपना सर हिलाया। हकीम अजमल ने कहा कि घोड़े से गिरने की वजह से आपको यह दिक्कत हुई थी। यह सुनकर महिला और वहां मौजूद तमाम डॉक्टरों की आंख खुली की खुली रह गईं।