ब्लड के इस टेस्ट से पता चलेगी यह बीमारी

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लखनऊ । प्राइमरी इम्यूनो डिसिसिएंसी(पीआईडी) के आशंका का पता शुरूआती दौर में सामान्य चिकित्सक भी लगा सकते हैं। किसी भी उम्र के व्यक्ति को यदि बार –बार संक्रमण हो रहा है। सामान्य खाने वाली एंटीबायोटिक से सुधार नहीं हो रहा है। भर्ती करना पड़ रहा है और लिम्फोसाइट की संख्या कम है तो य़ह पीआईडी के आशंका की पुष्टि कराने के लिए विशेषज्ञ से पास भेजने की जरूरत है। यह जानकारी संजय गांधी पीजीआई के क्लीनिकल इम्यूनोलाजी विभाग की प्रमुख प्रो. अमिता अग्रवाल और फाउंडेशन फार पीआईडी अमेरिका प्रो. सुधीर गुप्ता ने इंडियन सोसाइटी आफ पीडीआई के अधिवेशन में दी।उन्होंने बताया कि टीएलसी की जांच बीस से तीस रूपए में किसी भी पैथोलाजी पर हो जाती है। इस बीमारी के पुष्टि के लिए आगे इम्यूनोग्लोबलीन आईजी, आईजीए और आईजीएम की जांच के साथ लिम्फासाइट सब सेल की जांच फ्लोसाइमेंट्री से करने के बाद विशेष पुष्टि के लिए डेनटिक जांच कराते हैं। फाउडेशन फार पीआईडी ने संस्थान में मरीजों के फ्री परीक्षण के लिए आर्थिक सहयोग किया है प्रो. अमिता अग्रवाल ने बताया कि गरीब मरीजों की फ्री जांच करेंगे। फाउडेशन इलाज में भी मदद करने के लिए आश्वस्त्य किया है। पीआईडी को भारत सरकार रेयर डिजीजी पालसी में भी शामिल कर लिया है जिससे इलाज संभव हो रहा है। अधिवेशन में अमेरिका से डा. ट्रोआंय टोरगर्सन, डा. सेरींगो रोसेनजवींग. डा. डान कस्टेनर सहित कई विशेषज्ञों ने जानकारी दी। निदेशक प्रो. आररे धीमान ने अधिवेशन के उद्घाटन में कहा कि संस्थान इस बीमारी के लिए हर संसाधन उपलब्ध कराएगा।पीआईडी का इलाज न होने पर 20 साल में 50 फीसदी मरीजों की मृत्यु हो सकती है। इलाज से लंबी जिंदगी मिलती है।

 

 

 

 

 

 

 

हर वर्ष 25 से 30 नए मरीज
प्रो. अमिता अग्रवाल ने बताया कि हर साल 25 से 30 नए मरीज पीआईडी के डागन्सो होते है। जांच और जागरूकता की कमी के कारण देश में 16 हजार मरीज डायग्नोस है जबकि संख्या 10 लाख के आस पास है। इलाज के लिए इंट्रावेनस आईजीजी दिया जाता है जो हर 6 सप्ताह मे देना होता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

10 फीसदी होते है मिस डायग्नोस

पांच से 10 फीसदी मिस डाग्योनस होते है क्योंकि पीआईडी में स्किन, फेंफड़ा, आटो इम्यून डिजीज , लिवर सहित कई परेशानी रहती है कई बार इसी का इलाज चलता रहा। पीआईडी का पता नहीं लगता है।

 

पीआईडी का इलाज न होने पर 20 साल में 50 फीसदी मरीजों की मृत्यु हो सकती है। इलाज से लंबी जिंदगी मिलती है।

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