लखनऊ। थैलेसेमिया रोग से पूरे विश्वभर में लगभग 28 मिलियन लोग इस बीमारी से पीड़ित है। इसकी रोकथाम के लिए नेशनल हेल्थ मिशन के साथ ही राज्य सरकार भी काफी सहयोग कर रही है। इस बीमारी की उपचार एवं निदान के लिए और अधिक शोध किया जाने की आवश्कता है। यह बात किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के कु लपति प्रो. एमएलबी भट्ट ने थैलेसेमिया अपडेट 2019 कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुई कही। कलाम सेंटर में आयोजित कार्यक्रम में सेंटर फॉर एडवांस रिसर्च विभाग (सीएफएआर, साइटोजेनेटिक्स लैब), बाल चिकित्सा विभाग, पैथालॉजी विभाग, प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग, थैलेसेमिक्स इंडिया सोसाइटी के सहयोग से आयोजन किया गया। इस अवसर पर प्रो. अब्बास अली मेहदी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।
कार्यक्रम में प्रो. भटट् ने कहा कि थैलेसेमिया रोग से पूरे विश्वभर में लगभग 28 मिलियन लोग इस बीमारी से पीड़ित है। इसकी रोकथाम के लिए नेशनल हेल्थ मिशन के साथ ही राज्य सरकार भी काफी सहयोग कर रही है । इसके साथ ही उन्होंने इस बीमारी की उपचार एवं निदान के लिए और अधिक शोध किया जाना चांिहए। उन्होंने कार्यक्रम के माध्यम से इस बीमारी के प्रति आमजन को जागरूक किए जाने की आवश्यकता है।
स्टेट एपिडेमीओलॉजिस्ट डॉ. ओमेश कुमार भारती ने बताया कि थैलेसेमिया खून की एक गंभीर बीमारी हैं, इस बीमारी से ग्रस्त बच्चे को 3 महीने से एक साल की उम्र के बीच खून की कमी होने लगती है। थैलेसेमिया के कारण होने वाली खून की कमी को ब्लड चढ़ाकर पूरा किया जाता है। ब्लड हर 2-3 हफ्ते में एक बार देना पड़ता है और उम्र भर यह इलाज करना पड़ता है। लेकिन खून बार-बार चढ़ाने से शरीर में लोहे की मात्रा बढ़ने लगती है जो जिगर, हृदय, तिल्ली में जमा होने लगता है। इसके दुष्परिणाम 10-15 साल बाद सामने आने लगते है। बार-बार खून देने से लोहे की बढ़ती मात्रा को कम करने के लिए डेस्फराल या केल्फर या डेफेरीसिराक्स नामक दवाई शुरू करनी पड़ती है।
एसजीपीजीआई की मेडिकल जेनेटिक्स विभाग की प्रो. सरिता अग्रवाल ने बीटा- थैलेसेमिया बीमारी के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हीमोग्लोबिन बनाने वाली बीटा-ग्लोबन जीन की खराबी होती है ,जिससे हीमोग्लोबिन सही मात्रा मे ंनहीं बन पाता है। यह बीमारी तभी होती है जब बच्चें के जीन की दोनो प्रतियो ं(माता और पिता से मिली एक-एक प्रति) में खराबी हो। यह तब ही संभव है जब माता-पिता मे ंएक बीटा-ग्लोबिन जीन खराब हो। ऐसा व्यक्ति जिसमें जीन की एक प्रति खराब हो उसे कैरियर कहते है।
प्रसवपूर्व गर्भ परीक्षण के विषय पर जानकारी देते हुए केजीएमयू प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग की प्रो. अमिता पाण्डेय ने कहा कि गर्भवती स्त्री के गर्भ में बच्चे की जांच 10-12 हफ्ते पर सीवीएस या 14-16 हफ्ते में गर्भ के पानी की जांच से कर सकते है। यह पता लगाया जाता है कि वह बच्चा थैलेसेमिया मेजर से ग्रसित है या नहीं। यदि निदान में पता चलता है कि बच्चा ग्रसित है तो गर्भपात का उपाय माता-पिता को बताया जा सकता है। कार्यक्रम की आयोजन सचिव डॉ नीतू निगम ने जानकारी दी कि कि केजीएमयू में दो दिन बाल चिकित्सा विभाग में थैलेसिमिया रोगियों के लिए सोमवार एवं गुरूवार को ओपीडी का संचालन किया जा रहा है तथा यूपीएनएचएम के सहयोग से केजीएमयू में थैलेसेमिया रोगियों के लिए उपचार निशुल्क है।
उन्होंने बताया कि शीघ्र ही केजीएमयू प्रसवपूर्व निदान परीक्षण में फाउ थैलेसेमिया उनके द्वारा सहायक प्रोफेसर साइटोगेनेटिक्स यूनिट, सीएफएआर विभाग से प्रारम्भ किया जाएगा। कार्यक्रम में रिटायर्ड प्रोफेसर, पेडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी विभाग, केजीएमयू प्रो. अर्चना कुमार, सलाहकार, बाल चिकित्सा और हेमेटोलॉजी विभाग, फोर्टिस अस्पताल, नई दिल्ली के डॉ विकास दुआ, केजीएमयू पैथालॉजी विभाग की प्रो रश्मि कुशवाहा, केजीएमयू हेमेटोलॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. एसपी वर्मा, केजीएमयू पैथालॉजी विभाग की डॉ. गीता यादव, डॉ. प्रवीर आर्या सहित अन्य विशेषज्ञों ने थैलेसेमिया के बारे में चर्चा की।
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