‘इन बॉर्न एरर मेटोबॉलिज्म’ की चपेट में आ रहे शिशु

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लखनऊ – तीस फीसदी बच्चों में इन बॉर्न एरर मेटोबॉलिज्म का खतरा जन्म के बाद हो सकता है, इस बीमारी के कारण बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है। अगर शिशु में कोई लक्षण असामान्य लगे तो विशेषज्ञ डाक्टर की सलाह पर जन्म के बाद छह महीने में कुछ विशेष जांचें कराई जाएं, तो इन समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। छह महीने के बाद इस प्रकार की बीमारी की समस्याओं पर कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है। यह बात केजीएमयू के बायोकेमिस्ट्री विभाग के डॉ. ज्ञानेंद्र कुमार सोनकर ने बतायी। उन्होंने बताया कि उनके ‘यहां इस बीमारी के काफी शिशुओं का इलाज किया जा रहा है।

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डॉ. ज्ञानेंद्र का कहना है कि पिडियाट्रिक समेत अन्य विभागों से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक महीने में लगभग पांच सौ बच्चे इस बीमारी से चपेट में आकर इलाज कराने आ रहे है। जांच कराने के बाद इनमें से लगभग डेढ़ सौ बच्चे इन बॉर्न एरर मेटोबॉलिज्म के संदिग्ध हैं। इस कारण केजीएमयू में हाई परफार्मेंस लिक्विड क्रोमेटोग्राफी (एचपीएलसी) और गैस क्रोमेटोग्राफी मास स्पेक्टोमेट्री (जीसीएमएस) जांच से भी इस बीमारियों की जांच की जा रही है।

डॉ. ज्ञानेंद्र का कहना है कि आम तौर पर शिशु के जन्म के समय ही पीलिया, थॉयरायड आदि की जांचें करा ली जाती हैं। जागरूकता बढ़ा कर लोगों को इन्ही बीमारियों के साथ एचपीएलसी और जीसीएमएस जांच भी करा लेनी चाहिए। इससे आनुवांशिक बीमारियों है कि नही, इसकी जानकारी मिल जाएगी। इसके अलावा मानसिक और शारीरिक विकास में बाधा बनने वाली बीमारियों की भी पहचान की जा सकेगी। उन्होंने बताया कि बड़ा कारण खानपान और हमारा पर्यावरण है। इसके अलावा एक ही गोत्र में होने वाली शादियों से जीन संबंधी दिक्कतें बन जाती हैं। यही नहीं एन्जाइम की कमी सबसे बड़ा कारण है।

अगर परिवार में कोई आनुवांशिक बीमारी चली आ रही हो, तो जांच जरूर करानी चाहिए। इसके अलावा यह भी देखना चाहिए कि अगर दूध न पिए, अपच हो तो भी जांच करा लेना चाहिए है। इसके अलावा यह भी ध्यान रखा जाए कि किसी महिला के पहले बच्चे की पैदा होते ही अचानक मौत हो गई हो तो, अगले गर्भ के दौरान और प्रसव के बाद बच्चे की जांच जरूर कराएं।

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