चिकित्सा जगत की चुनौतियाँ

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पिछले महीने ही उत्तराखंड में एक चिकित्सक को रोगी के परिजनों ने मार डाला।यह कोई एक घटना नहीं बल्कि आये दिन रोगी के इलाज में कथित रूप से लापरवाही का मुद्दा बना कर चिकित्सकों के साथ मारपीट करना, उनके क्लीनिक, अस्पताल में तोड़फोड़ करना एक रोजमर्रा की खबर बन गयी है। इससे चिकित्सक समाज निपट पाता तब तक सी0ई0ए0(क्लीनिकल एस्टाबिलिशमेंट एक्ट)उ0प्र0 सरकार ने हाल ही में बिना कोई बहस, चर्चा, सुझाव के परित कर दिया है।इस एक्ट के चलते चिकित्सकों द्वारा क्लीनिक,नर्सिंग होम या कोई छोटा अस्पताल भी खोलने पर तमाम तरह के गैर जरूरी ,गैर व्यवहारिक, भ्रष्टाचार व इन्सपेक्टर राज को बढ़ावा देने वाली प्रक्रियाओं से गुजरना होगा, जिसके फलस्वरूप न सिर्फ क्लीनिक, अस्पताल खोलना महंगा व जटिल होगा बल्कि इलाज भी आम आदमी की पहुँच के बाहर हो जायेगा।

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यह क्लीनिकल एस्टाबिलिशमेंट एक्ट(सी0ई0ए0) वास्तव में केन्द्र की यूपीए सरकार द्वारा सन् 2010 में लाया गया था,जिसका उद्देश्य समाज को स्तरीय चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराना तथा चिकित्सकीय सिस्टम में एकरूपता लाना था।परन्तु इसको व्यवहारिक धरातल पर लाने वाले नियम इतने असहज और अव्यवहारिक है तथा भ्रष्टाचार एवं इन्सपेक्टर राज को बढ़ावा देने वाले है, कि इसके लागू करने मे न सिर्फ चिकित्सकों को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा,बल्कि समाज के कमजोर वर्ग के लिए चिकित्सा सुविधा काफी महंगी हो जायेगी। समाज का 80 प्रतिशत रोगी वर्ग प्राइवेट सेक्टर की छोटी क्लीनिक ,अस्पताल व नर्सिंग होम में ही जाकर इलाज कराता है।अगर इनकी स्थापना ही महंगी व जटिल हो जायेगी तो गरीब मरीजों पर आर्थिक भार और बढ़ेगा, जबकि यह एक्ट बड़े अस्पतालों व कार्पोरेट अस्पतालों को परोक्ष रूप से बढ़ावा देगा।

”सेवा” अब ”सेवायें” नहीं रही, ”सर्विसेज” हो गयी है –

एक समय था कि डाक्टरों को भगवान का दर्जा देते थे मरीज और उसके परिजन। वो श्रद्धा, सम्मान और सबसे बड़ी बात वो अटूट भरोसा। कहां चला गया वह सब। अगर हम गहराई में जाकर देखें तो यह परिवर्तन व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में दिखता है और सामाजिक, व्यवसायिक अन्र्तसम्बन्धों के बदलते स्वरूप में भी शिक्षा आधुनीकरण और भूमण्डलीकरण ने समाज को नये रूप में डाला है। ”सेवा” अब ”सेवायें” नहीं रही, ”सर्विसेज” हो गयी है। ”प्रोफेसनल”, ”सर्विसेज” जिसमें तकनीकी सुगढ़ता और कौशल बढ़ा है लेकिन नैतिक दायित्व बोध और गरिमा निश्चित तौर पर अपने पुराने रूप से बदतर में बदली है। पहले चुनिन्दा डाक्टर दूर-दूर तक अपने नाम और कौशल की अच्छाइयों के लिये जाने जाते थे। अब डाक्टर नहीं कारपोरेट, अस्पतालों, स्पेशलाइजेशन और सुपर स्पेशलाइजेशन का दौर है। समाज, डाक्टरों को ईश्वर के रूप में नहीं देखता बल्कि उसे लगता है कि ज्यादातर चिकित्सक येन केन प्रकारेण इलाज के दौरान धन के दोहन में लगे रहते है। दवा, सर्जरी और जांचे सबमे उसे कमाई के अनैतिक स्त्रोत दिखते है। सन्देह का चश्मा हमेशा मरीज की आंखों पर रहता है।

इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है जाहिर तौर पर खर्चे भी बढ़े है –

निजीकरण और व्यवसायीकरण के इस युग में पूंजी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। इसके फायदे कम हुये है, नुकसान ज्यादा। पूंजी बढ़ने से तकनीकी और आधारभूत ढांचे में क्रांतिकारी सुधार हुए है। गांव कस्बे में पेड़ के नीचे खाट और बदहाल अस्पतालों में इलाज का दौर अब सेवेन स्टार होटल नुमा अस्पतालों तक आ पहुंचा है। इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है जाहिर तौर पर खर्चे भी बढ़े है। इन बेतहासा बढ़े खर्चों का अर्थशास्त्र भी डाक्टरों से मरीजों के सम्बन्धों का मनोविज्ञान और मानसिकता बदल रहा है। अगर व्यक्ति-व्यक्ति अन्र्तसम्बन्धों की बात करें तो शक सुबहे से सराबोर इस माहौल में मरीजों का चिकित्सकों से संवाद और व्यावहार भी पतन के नये स्तर पर जा पहुंचा है। जब मरीज की हालत गंभीर हो और धैर्य और सहनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत हो। मरीजों और चिकित्सकों के बीच स्थापित मर्यादा और सद्व्यवहार की लक्ष्मण रेखा आसानी से और अक्सर ध्वस्त हो जाती है। कारणों की तह में जायें तो एक तथ्य यह भी उभरता है कि 10-10 साल चिकित्सा शास्त्र के हर गूढ़ और गहन तथ्यों को समझने-बूझने में लगे डाक्टर को मरीजों से उचित तरह से सम्वाद करने के लिये बिल्कुल भी प्रशिक्षित नहीं किया जाता। हमारे चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रमों का यह झोल आजीवन चिकित्सक के प्रोफेशन एटिट्यूड को प्रभावित करता है। इस छोर पर सुधार की तत्काल आवश्यकता है।

समाज में बढती उग्रता –

एक अन्य कारण जो चिकित्सक रोगी के संबंधों को बिगाड़ रहा है,वह है समाज में बढती उग्रता।आज रोगी के परिजनों को लगता है कि सिफारिश कराकर या धौंस दिखाकर रोगी का उपचार अच्छा कराया जा सकता है,जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में वे आए दिन करते रहते हैं।इस सोच के कारण चिकित्सक रोगी का उपचार करें या अपनी समाज के बढ़ते उग्र स्वरूप से स्वयं की रक्षा करें या अपनी क्लीनिक या अस्पताल के शीशे टूटने से बचाएं, यह भी एक विकराल समस्या कुछ वर्षो से उभरी है।किसी रोगी को यदि उपचार के दौरान मृत्यु हो जाए तो तुरंत आरोप लगता है कि डाक्टर की लापरवाही से मरीज की मृत्यु हो गई जबकि सत्य तो यह है कि कोई चिकित्सक क्यों चाहेगा कि उसके मरीज की मृत्यु हो जाये या वह ठीक न हो । प्रत्येक चिकित्सक अपने ज्ञान व जानकारी से रोगी को ठीक करने की कोशिश करता है, जीवन या मृत्यु चिकित्सक के वश में नही अपितु यह ईश्वर के हाथ में है, यह समाज को ध्यान रखना चाहिए। अतः मरीजों और उनके परिजनों को भी अपने रवैये मे सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा। डाक्टर से उनके रिश्ते पूरी तरह से व्यवसायिक हो फिर भी उसे आत्मीयता, मानवीयता और परस्पर सम्मान का होना निश्चित ही आवश्यक है।

डाक्टरों को कृपया भगवान नहीं बल्कि इंसान ही समझें –

अंत में  इस लेख के माध्यम से चिकित्सक वर्ग की ओर से समाज से विनम्र निवेदन है कि डाक्टरों को कृपया भगवान नहीं बल्कि इंसान ही समझें तथा इंसानों की तरह ही उनके प्रति व्यवहार करें,यही हमारे लिए काफी है। चिकित्सक अपने ज्ञान कौशल और सामथ्र्य के हिसाब से अपने रोगी का इलाज करने की पुरजोर कोशिश करता है,किन्तु उसका जीवन या मरण , चिकित्सक के हाथ में नहीं अपितु ईश्वर के हाथ में हैं। भारत सरकार एक तरफ तो स्टार्ट अप एवं स्टैन्ड अप जैसी योजनाओं द्वारा छोटे उद्योगों व नये उद्यमियों को बढावा दे रही है , वहीं युवा चिकित्सकों व छोटे अस्पतालों को खोलने में इस एक्ट से इन्सपेक्टर राज को बढ़ावा मिलेगा और यही कार्य उ0प्र0 सरकार भी बिना सोचे समझे कर रही है।अतः भारत व उ0प्र0 सरकार से निवेदन है कि चिकित्सकों को सुने व इस क्लीनिकल एस्टाबिलिशमेंट एक्ट को सरल बनाने की कृपा करें।

डा. सूर्यकान्त
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
रेस्पाइरेटरी मेडिसिन विभाग,
केजीएमयू, लखनऊ,यू.पी.

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