बीमारी के इलाज में मददगार नीति बनाने की सख्त जरूरत
लखनऊ। स्पाइनल मस्कुलर एट्राफी (SMA) एक दुर्लभ जेनेटिक डिस्ऑर्डर है, जो रीढ़ की हड्डी में मोटर न्यूरॉन्स को प्रभावित करता है। भारत में यह रोग एक गंभीर चिंता बनकर उभरा है। स्वास्थ्य अधिकारियों और नीति निर्माताओं को इस ओर तुंरत ध्यान देने की जरूरत है। SMA मरीजों, देखभाल करने वालों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के लिए गंभीर चुनौतियां पेश करता है और इसके आर्थिक बोझ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
संजय गांधी पोस्ट-ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (SGPGIMS), लखनऊ के मेडिकल जेनेटिकिस्ट डॉ. कौशिक मंडल ने कहा, “हमने विश्व स्तर पर SMA को समझने और इलाज में महत्वपूर्ण प्रगति की है। भारत में, निदान, प्रबंधन, व्यापक बहु-विषयक देखभाल और प्रसव पूर्व परीक्षण में उल्लेखनीय प्रगति हासिल की गई है। गर्भावस्था के आरंभ में सभी गर्भवती महिलाओं में एसएमए वाहक स्थिति के लिए पूर्व-संकल्पन परामर्श और प्रसवपूर्व जांच की भूमिका को समझना महत्वपूर्ण है। एक बार जब एक साझेदार को वाहक पाया जाता है, तो दूसरे साझेदार की जाँच की जानी चाहिए। यदि दोनों वाहक पाए जाते हैं तो प्रसव पूर्व परीक्षण (prenatal testing) की पेशकश की जानी चाहिए।
गौरतलब है कि एसएमए टाइप 1 जैसी दुर्लभ बीमारियां मरीज को कमजोर बनाने वाली स्थिति है, जिस पर भारत में नीति निर्माताओं के तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, इस दिशा में प्रगति की गई है, लेकिन एसएमए के मरीजों और उनके परिवार की शारीरिक, भावनात्मक और वित्तीय परेशानियों को कम करने के लिए नीतियों को स्पष्ट रूप से अमल में लाने और सरकार और निजी क्षेत्र के सहयोग की तत्काल आवश्यकता है।
गंभीर SMA टाइप-1 की बीमारी के साथ जन्मे बच्चों की जीवन प्रत्याशा महज दो साल होती है। यह इस बीमारी का सबसे आम रूप है। इससे बच्चों की मांसपेशियां लगातार कमजोर हो जाती हैं और शरीर को हिलाने-डुलाने में उन्हें काफी तकलीफ होती है, जिससे छोटे-छोटे काम भी काफी मुश्किल बन जाते हैं। यह रोग तेजी से बढ़ सकता है, जिससे रोग से जूझ रहे बच्चों की जिंदगी पर गंभीर असर पड़ सकता है। एसएमए टाइप 1 से प्रभीवित मरीजों को काफी शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एसएमए से बच्चे के रेंगने, चलने, बैठने और सिर को नियंत्रित रखने की क्षमता पर असर पड़ता है। गंभीर एसएमए में सांस लेने और खाना निगलने में इस्तेमाल होने वाली मांसपेशियों को नुकसान पहुंचा सकता है। इससे रोजमर्रा के काम में काफी परेशानी आती है। इससे बच्चे के माता-पिता पर उनकी लगातार बेहतर देखभाल का बोझ काफी बढ़ जाता है। मरीजों के परिवारों को एसएमए को नियंत्रित रखने के लिए विशेष इलाज, चिकित्सा उपकरणों और थेरेपी की ऊंची लागत के कारण अक्सर वित्तीय चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं।
नई दिल्ली स्थित सर गंगा राम अस्पताल में इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के चेयरमैन डॉ. रत्ना दुआ पुरी ने कहा, “एसएमए टाइप 1 की दर्दनाक बीमारी है, जो हमारे समाज में सबसे संवेदनशील वर्ग, बच्चों, को प्रभावित करती है। 3000-4000 शिशुओं में से किसी एक नवजात शिशु को जन्म से यह बीमारी होती है। इससे परिवारों पर काफी आर्थिक बोझ भी पड़ता है क्योंकि इस बीमारी के इलाज के लिए कई क्षेत्रों की विशेषज्ञ देखभाल और रोग को काबू में रखने के लिए महंगी थेरेपी की जरूरत होती है। इन आधुनिक चिकित्सा उपकरणों तक पहुंच केवल उम्मीद ही नहीं है, बल्कि इन बच्चों की जान बचाने के लिए एक अहम जरूरत है। इसकी लागत वहन करने की सरकार की प्रतिबद्धता सही दिशा में उठाया गया कदम है, पर यह बेहद जरूरी है कि सरकार की इस प्रतिबद्धता का हर बच्चे को भरपूर लाभ मिले।”
वर्ष 2013 से ही दुर्लभ रोग को नियंत्रित करने की नीतियां बनाने पर विचार-विमर्श किया जा रहा है। हालांकि, अब दुर्लभ रोगों के लिए राष्ट्रीय नीति अस्तित्व में आ चुकी है, लेकिन इस नीति के वास्तविक रूप से लागू करने की रफ्तार काफी धीमी है और पर्याप्त नहीं है। पुरानी नीति में बीमारी के इलाज पर होने वाले खर्च के बंटवारे पर स्पष्टता नहीं है, लेकिन नई नीति में इस चुनौती का निपटारा किया गया है। इसमें कहा गया है कि दुर्लभ रोगों के इलाज के लिए वित्तीय मदद हासिल करने के लिए मरीज अपने नजदीकी सेंटर ऑफ एक्सिलेंस से संपर्क कर दावे की जांच के बाद वित्तीय लाभ हासिल कर सकता है।