उत्तर भारत की इस नयी तकनीक से सफल है दांतों में इम्प्लांट

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लखनऊ। किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के डेंटल यूनिट में उत्तर भारत में दांतों में नयी तकनीक बेसल इप्लांट का प्रयोग बढ़ रहा है। इस तकनीक में जबड़ों के उस हिस्से में भी इंप्लांट या दांत लगाए जा सकते हैं, जहां पर हड्डी न हो किसी भी इम्प्लांट के लिए जबड़ों में हड्डी की जरूरत होती है, जिस पर ग्राफ्ट लगा कर दांत लगाए जाते हैं। यह जानकारी मैक्सिलोफेशियल विभाग के वरिष्ठ डॉ. यूएस पाल ने डेंटल इम्प्लांट विशेषज्ञ डा. लक्ष्य के साथ पत्रकार वार्ता में दी। उन्होंने बताया कि जल्द ही डेंटल इम्प्लांट पर कार्यशाला का आयोजन भी किया जा रहा है।

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डा. पाल ने बताया बेसल का मतलब एल्वीओलर अर्थात मुंह का वह हिस्सा जहां पर दांत हैं। बेसल उसके बाद का हिस्सा है। बेसल इम्प्लांट में मुह के उसी भाग मे इम्प्लांट लगाया जाता है, जो भाग जबड़े के नीचे का हिस्सा है। इस तकनीक में जबड़ों के उस हिस्से में भी इंप्लांट या दांत लगाए जा सकते हैं, किसी भी इम्प्लांट के लिए जबड़ों में हड्डी की जरूरत होती है, जिस पर ग्राफ्ट लगा कर दांत लगाए जाते हैं। उन्होंने बताया कि कन्वेंशनल इम्प्लांट में दांत लगाने में लगभग 4 से 5 महीने का समय लगता है जो कि एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है। डॉ पाल के मुताबिक कन्वेंशनल इंप्लांट्स के जरिए बत्तीसी लगाई जाए तो उसमें लगभग 80 हजार का खर्च आता है, जबकि बेसल इंप्लांट में बत्तीसी जल्दी भी लगाई जा सकती है और उसमें तकरीबन 35 से 40 हजार तक का खर्च आता है।

उन्होंने बताया कि कि कन्वेंशनल इंप्लांट से यह तकनीक काफी उच्चस्तरीय है। इसमें पहला कि यह 24 घंटे के अंदर दांत को लगा सकता है, जो कि कन्वेंशनल इंप्लांट में संभव नहीं है। इसके अलावा कन्वेंशनल इंप्लांट लगाने में जबड़े में पर्याप्त मात्रा में हड्डी की आवश्यकता होती है। हड्डी ना होने पर उसमें ग्राफ्ट लगाया जाता है जो कि काफी महंगा होता है। कई बार डायबिटीज, ऑस्टियोपोरोसिस, कैंसर या किसी तरह की चोट लगने के कारण हड्डी नहीं बचती है या कम बचती है, उस अवस्था में कन्वेंशनल इंप्लांट नहीं लगाया जा सकता या कठिनाई से लगता है।

उस अवस्था में बेसल इंप्लांट महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके अलावा उन्होने बताया कि डायबिटीज और मुंह के कैंसर से पीड़ित रोगियों के लिए बेसल इंप्लांट काफी लाभदायक साबित हो सकता है। डॉक्टर पाल कहते हैं कि कैंसर रोगियों में एल्वीओलर हड्डी काट कर हटा दी जाती है। ऐसे में इन रोगियों में बेसल बोन में इंप्लांट डालकर दांत लगाना काफी आसान हो जाता है।

वरिष्ठ डेटल सर्जन डॉ. लक्ष्य के मुताबिक अब तक बत्तीसी लगाने के लिए मुंह की नाप लेकर उसका एक कास्ट बनाकर मॉडल बनाना पड़ता था, जिसके बाद इसके आधार पर इंप्लांट लगाया जाता था। इसमें काफी वक्त लगता था। नयी तकनीक बेसल इन प्लांट में यह काम डिजिटल रूप से भी किया जा सकता है। इसमें इंप्लांट में मरीज के दांत के नाप को स्कैन कर उसका मॉडल बना सकते हैं। जिसमें समय भी नहीं लगता और काम भी आसानी से हो जाता है इस पूरी प्रक्रिया में खर्च काफी कम आता है। अगर सरकारी अस्पतालों में देखें तो यह खर्चा लगभग एक तिहाई हो जाता है। सिर्फ इंप्लांट और मटेरियल का ही खर्च इसमें आता है।

डॉक्टर पाल ने बताया कि केजीएमयू में पहली बार यह सुविधा शुरू होने जा रही है इससे सभी मरीजों को ना केवल आर्थिक रुप से सहायता मिलेगी बल्कि उनका समय भी काफी बच जाएगा।

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