फेफड़े के अलावा अन्य टीबी नहीं होती संक्रामक
टीबी का नाम सुनते ही मरीज से दूरी बनाना उचित नहीं : डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
लखनऊ। टीबी का नाम सुनते ही मरीज का सामाजिक तिरस्कार करने वालों को यह जानना जरूरी है कि फेफड़े की टीबी के अलावा शरीर के किसी अन्य अंग की टीबी संक्रामक नहीं होती है। फेफड़े की टीबी का भी यदि दो से तीन हफ्ते तक लगातार इलाज कर लिया जाए तो उसके बैक्टीरिया निष्क्रिय हो जाते हैं यानि संक्रमण फैलाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है।
नेशनल टीबी टास्क फ़ोर्स के वाइस चेयरमैन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का कहना है कि टीबी दशकों से एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक समस्या बनी हुई है। टीबी का नाम सुनकर लोग अपनों से दूरी बना लेते हैं। कुछ मामले ऐसे भी सामने आते हैं कि पत्नी में टीबी की पुष्टि के बाद पति ने तलाक दे दिया या घर से बहिष्कृत कर दिया। टीबी मरीज को घर से दूर अलग-थलग कर देते हैं जो कतई उचित नहीं है।
कुछ भ्रांतियों और धारणाओं के कारण व्यक्ति की नकारात्मक छवि बनाकर उसे समाज द्वारा अस्वीकृत किया जाता है। इस नकारात्मक छवि और सामाजिक अस्वीकृति के भय से क्षय रोगी स्वास्थ्य केन्द्रों पर उपचार के लिए नहीं आते हैं, जिससे इस रोग के फैलने का डर होता है और रोगी का रोग भी बढ़ सकता है। इस तरह के सामाजिक भेदभाव और भय को न केवल समाज बल्कि स्वास्थ्य प्रणाली में भी बदलना होगा ।
डॉ. प्रसाद का कहना है – अगर घर के किसी भी सदस्य में फेफड़े की टीबी की पुष्टि हो तो दो से तीन हफ्ते तक मरीज मास्क लगाकर रहे और स्वस्थ स्वास्थ्य व्यवहार अपनाए क्योंकि इस दौरान खांसने या छींकने से निकलने वाली बूंदों के सम्पर्क में आने से दूसरे लोग बैक्टीरिया की चपेट में आ सकते हैं। इसके बाद घर के सभी सदस्य साथ रहें और एक दूसरे का सामान इस्तेमाल कर सकते हैं। मरीज का तौलिया या बर्तन आदि अलग करने की कोई जरूरत नहीं है। इसके अलावा टीबी मरीज के घर के सदस्य टीबी प्रिवेंशन ट्रीटमेंट (टीपीटी) के तहत बचाव के लिए चिकित्सक के सलाह के अनुसार दवा का सेवन जरूर करें। घर के बच्चों की टीबी की जांच भी कराएँ।
नेशनल स्ट्रेटेजिक प्लान फॉर टूबरकुलोसिस- 2017-2025 में टीबी रोगियों के साथ भेदभाव को मिटाने पर विशेष बल दिया गया है और इसके लिए प्रचार-प्रसार की बात की गयी है। टी बी से ठीक हुए लोगों और टी बी चैंपियंस का इसमें विशेष भूमिका है जो अपना अनुभव बताकर समुदाय में भेदभाव हटाने की कोशिश करते हैं क्योंकि यह समुदाय के ही लोग होते हैं जो खुद इस दौर से गुज़रे होते हैं इनकी बात का समुदाय में असर ज्यादा होता है।
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