लखनऊ। नये शोध के आधार पर अब क्रोनिक आब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के मरीजों के इलाज का पैटर्न बदला जा रहा है। इसके तहत जिन मरीजों में बलगम ज्यादा आ रहा है, उन्हें एनएसी दवाएं देने की छूट मिल गई है। इसी तरह धूल, धुएं वाले क्षेत्र में रहने वालों को मेडफार्मिन भी दिया जा सकता है। यह जानकारी नेशनल कालेज ऑफ चेस्ट फिजिशियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं केजीएमयू रेस्पेरेटरी मेडिसिन विभागाध्यक्ष प्रो. सूर्यकान्त ने दी। वह रविवार को इंडियन चेस्ट सोसायटी यूपी चैप्टर की ओर से राजधानी के एक होटल में ‘बेस्ट आफ चेस्ट 2019 कार्यशाला को संबोधित कर रहे थे। कार्यशाला में उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड केकरीब 250 डाक्टरों ने हिस्सा लिया। मौके पर डा. वेद प्रकाश, डा. राजेंद्र प्रसाद, डा. दर्शन बजाज, डा. राजीव गर्ग, डा. संदीप भट्टाचार्य आदि मौजूद थे।
उन्होंने बताया कि सीओपीडी में पहले माना जाता था कि बीटा ब्लाकर दवाएं नहीं देनी है, लेकिन नये शोध में इन दवाओं की जरूरत बताई गई है। इन दवाओं से सीओपीडी के मरीजों में करीब 44 फीसदी मृत्युदर में गिरावट आई है। इससे हार्ट अटैक होने का खतरा करीब 28 प्रतिशत कम हो जाता है। क्रिटकल केयर व चेस्ट रोग विशेषज्ञ डा. बी पी सिंह ने कहा कि क्रोनिक आब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के मरीजों में निमोनिया का खतरा करीब 18 गुना अधिक होने की संभावना रहती है। इसके लिए टीका भी लगवाया जाता है। इस तरह के मरीजों में सुबह- शाम भाप लेना फायदेमंद रहता है। उन्होंने बताया कि विशेषज्ञ डाक्टर मरीज की जांच रिपोर्ट और उसके आहार- व्यवहार के आधार पर दवाएं दी जाती हैं।
उन्होंने बताया कि विश्व में लगभग 15 लाख रोग सीओपीडी से हर साल मरते हैं, जिसमें करीब पांच लाख लोग भारत के हैं। पहले माना जाता था कि यह बीड़ी, सिगरेट के धुएं से होता है, लेकिन यह धूम्रपान न करने वालों को भी हो रहा है। करीब 69 फीसदी घरेलू महिलाएं इसकी मरीज हैं। इसी तरह अगरबत्ती, हवन, सोफा, कालीन आदि की वजह से सीओपीडी के मरीज बढ़ रहे हैं।
जयपुर के डा. वीरेंद्र सिंह ने बताया कि अस्थमा के मरीजों में उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मरीजों की संख्या सबसे ज्यादा है। यहां प्रति एक लाख में करीब 112 मरीज अस्थमा से पीड़ित हैं। इसका सबसे बड़ा कारण बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण माना जा रहा है। लोगों में अस्थमा को लेकर जागरुकता का अभाव है।
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