लखनऊ । दो महीने के मासूम का बायां फेफड़ा जन्म के समय से ही गले तक चढ़ा था। यही नहीं दिल बायें से दाहिने की तरफ खिसक गया था। इससे बार-बार सीने में संक्रमण और खांसी हो रही थी। मासूम दूध भी नहीं पी पा रहा था और उससे सांस लेने में भी दिक्कत थी। ऐसे में किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पीडियाट्रिक सर्जरी विभाग के डॉ़ आशीष वाखलू ने जटिल सर्जरी कर मासूम को नई जिंदगी दी है। इस प्रकार की बीमारी को इंवेंट्रेशन डायफ्राम कहा जाता है । बच्चा अब पूरी तरह स्वस्थ है और आज डिस्चार्ज कर दिया गया।
उन्होंने बताया कि आर्यन (02) 31 दिसंबर को विभाग में भर्ती हुआ था। घरवालों ने बताया कि बार-बार खांसी और इंफेक्शन हो रहा है। जिसके कारण न तो दूध पी रहा है और न ही ठीक से सांस ले पा रहा है। उन्होंने बताया कि आर्यन का एक्सरे कराया गया। जिससे पता चला कि बायां फेफड़ा गले तक है। वहीं तिल्ली और छोटी आंत भी पेट के बजाय सीने तक चढ़ी हुई है। फेफड़े के उपर होने की वजह से हॉर्ट भी दाहिने की ओर खिसक गया था। जिससे दूसरा फेफड़ा प्रभावित हो रहा था। डॉ़ आशीष ने बताया कि इस प्रकार की बीमारी को इंवेंट्रेशन डायफ्राम कहा जाता है।
डॉ़ आशीष वाखलू ने बताया कि इस प्रकार की सर्जरी बेहद कठिन होती है। केजीएमयू के अलावा दूसरी जगहों पर पेट से जाकर सर्जरी करते हैं। जबकि वह थोरेकोस्कोप विधि से ऑपरेशन करते हैं। इसमें सीने में तीन छेद करते हैं और दूरबीन के जरिए ऑपरेशन करते हैं। उन्होंने बताया कि 45 मिनट की सर्जरी के दौरान डायफ्राम को नीचे धकेला गया। उसके बाद उसकी परत को दो बार सिला गया। उसके बाद फेफड़ा, आंत और हॉर्ट अपनी जगह पर आ गए।
डॉ़ आशीष ने बताया कि मरीज मात्र दो महीने का था। ऐसे में कठिनाई बहुत थी। डायफ्राम सीलने के दौरान सबसे ज्यादा दिक्कत यह थी कि कहीं सुई का कोई हिस्सा, पेट में न लग जाए। जिससे की दूसरी समस्याएं आ जाएं। इसके अलावा बच्चे को एनीस्थिसिया का डोज देना भी काफी कठिन होता है। केजीएमयू में इस ऑपरेशन का खर्च बमुश्किल 14 हजार रूपए आया। जबकि प्राइवेट संस्थानों में 50 हजार रूपए खर्च होते हैं। डॉ़ वाखलू के मुताबिक इस तरह की दिक्कत तीन हजार में से एक बच्चे को ही होती है। उन्होंने बताया कि ऑपरेशन करने वाली टीम में डॉ़ गुरमीत, डॉ़ राहुल, सिस्टर वंदना और एनीस्थिसिया की टीम थी। मरीज को आज डिस्चार्ज कर दिया गया।
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